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REPORT
सस्टेनेबल एग्रीकल्चर इन इंडिया 2021
हम क्या जानें और कैसे विस्तार करें
नीति गुप्ता, शनल प्रधान, अभिषेक जैन, न्याहा पटेल

रिपोर्ट | सस्टेनेबल एग्रीकल्चर इन इंडिया

प्रस्तावित उद्धरण: गुप्ता, नीति, शनल प्रधान, अभिषेक जैन, और न्याहा पटेल. 2021. सस्टेनेबल एग्रीकल्चर इन इंडिया 2021 – व्हॉट वी नो एंड हाउ टू स्केल. नई दिल्ली: काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर. 

अप्रैल 2021 | सस्टेनेबल फूड सिस्टम

डिस्क्लेमर : यह मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद है। हमने इसके अनुवाद में पूरी सतर्कता बरती है। यदि इसमें कोई भ्रम होता है या भूलवश कोई त्रुटि सामने आती है तो इसका अंग्रेजी संस्करण ही मान्य होगा।

अवलोकन

यह अध्ययन, फूड एंड लैंड यूज कोएलिशन (एफओएलयू) के साथ साझेदारी में, भारत में सतत कृषि पद्धतियों और प्रणालियों (एसएपीएस) की वर्तमान स्थिति की जानकारी देता है। इसका उद्देश्य एसएपीएस के साक्ष्य-आधारित विस्तार में नीति निर्माताओं, प्रशासकों, परोपकारी व्यक्तियों और अन्य लोगों को योगदान करने में सहायता करना है, जो जलवायुगत चुनौतियों वाले भविष्य के संदर्भ में पारंपरिक, संसाधन (इनपुट) गहन कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण विकल्प उपलब्ध कराता है। इस अध्ययन में कृषि पारिस्थितिकी (एग्रो-इकोलॉजी) को एक जांच उपकरण के रूप में उपयोग करते हुए 16 एसएपीएस की पहचान की गई है, जिनमें कृषि वानिकी, फसल चक्र में बदलाव, वर्षा जल संचयन, जैविक खेती और प्राकृतिक खेती शामिल हैं। 16 पद्धतियों की गहन पड़ताल के आधार पर, यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत में सतत कृषि मुख्यधारा से बहुत दूर है। इसके अलावा, यह एसएपीएस को बढ़ावा देने के लिए कई उपायों को सामने रखता है, जिसमें पुनर्गठित सरकारी सहायता और साक्ष्य जुटाने की सख्त व्यवस्था शामिल है।

प्रमुख बिंदु

  • सतत कृषि, पारंपरिक संसाधन-गहन कृषि का एक अत्यंत जरूरी विकल्प उपलब्ध कराती है। पारंपरिक कृषि के दीर्घकालिक प्रभावों में मिट्टी की ऊपरी परत का खराब होना, भूजल स्तर में गिरावट और जैव विविधता में कमी शामिल है। जलवायु से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे विश्व में भारत की पोषण सुरक्षा को सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
  • जैसा कि सतत कृषि की विभिन्न परिभाषाएं मौजूद हैं, लेकिन यह अध्ययन कृषि-पारिस्थितिकी (agro-ecology) के आधार पर इनकी पड़ताल करता है। यह शब्द व्यापक रूप से कम संसाधन-गहन कृषि समाधानों, फसलों और पशुधन में अतिरिक्त विविधता के साथ किसानों की स्थानीय परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता को दर्शाता है।
  • भारत में सतत कृषि मुख्यधारा से बहुत दूर है। सिर्फ पांच एसएपीएस (फसल चक्र; कृषि वानिकी; वर्षा जल संचयन; मल्चिंग और लक्षित) का विस्तार शुद्ध बुवाई क्षेत्र के 5 प्रतिशत से अधिक है।
  • अधिकतर एसएपीएस को कुल भारतीय किसानों में 50 लाख (या चार प्रतिशत) से भी कम किसान ही इस्तेमाल करते हैं। कई कृषि पद्धतियों में यह आंकड़ा एक प्रतिशत से भी कम है।
  • फसल चक्र भारत में सबसे लोकप्रिय एसएपीएस है, जिससे लगभग 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि और लगभग 15 मिलियन किसान जुड़े हैं। कृषि वानिकी, मुख्य रूप से बड़े किसानों के बीच लोकप्रिय है, और वर्षा जल संचयन का अपेक्षाकृत विस्तार ज्यादा है, क्रमशः 25 मिलियन हेक्टेयर और 20-27 मिलियन हेक्टेयर।
  • वर्तमान में जैविक खेती का विस्तार केवल 2.8 मिलियन हेक्टेयर या भारत के 140 मिलियन हेक्टेयर के शुद्ध बुवाई क्षेत्र का दो प्रतिशत है। प्राकृतिक खेती भारत में सबसे तेजी से बढ़ने वाली सतत कृषि पद्धति है और इसे लगभग 8,00,000 किसानों ने अपनाया है। दशकों तक लगातार चले प्रचार के बाद एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) का क्षेत्र 5 मिलियन हेक्टेयर पहुंच गया है।

Sustainable agriculture practices and systems in India (2021) – key statistics

  • कृषि वानिकी और धान गहनता प्रणाली (एसआरआई), एसएपीएस के आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक परिणामों पर प्रभावों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं के बीच सबसे लोकप्रिय हैं। बायोडायनामिक कृषि, पर्माकल्चर और फ्लोटिंग फार्मिंग जैसी पद्धतियों के प्रभावों के साक्ष्य या तो बहुत सीमित हैं या उपलब्ध नहीं हैं।
  • मौजूदा अध्ययनों में तीनों स्थिरता आयामों (आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक) में एसएपीएस के दीर्घकालिक आकलनों का अत्यधिक अभाव है। शोध से संबंधित अन्य सीमाओं में परिदृश्य, क्षेत्रीय या कृषि-पारिस्थितिकी-क्षेत्र स्तर के आकलनों से संबंधित शोध-अंतराल (research gap) और जैव विविधता, स्वास्थ्य व लिंग जैसे मूल्यांकन मानदंडों पर ध्यान केंद्रित करने की सापेक्षिक कमी शामिल है।
  • राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (एनएमएसए) के लिए बजट आवंटन कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कुल बजट का केवल 0.8 प्रतिशत है - 142,000 करोड़ रुपये (केंद्र द्वारा उर्वरक सब्सिडी पर सालाना खर्च किए जाने वाले 71,309 करोड़ रुपये को छोड़कर)।
  • अध्ययन द्वारा चिन्हित 16 प्रथाओं में से आठ को विभिन्न केंद्रीय सरकारी योजनाओं के तहत कुछ बजटीय सहायता मिलती है। इनमें से जैविक खेती पर नीतियों में सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया गया है,क्योंकि भारतीय राज्यों ने भी जैविक खेती के लिए विशेष नीतियां बनाई हैं।
  • एसएपीएस में शामिल ज्यादातर नागरिक समाज संगठन (सीएसओ) महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सक्रिय थे। सीएसओ की जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और वर्मीकंपोस्टिंग में सबसे ज्यादा दिलचस्पी है।

भारत की सतत कृषि में उभरते हुए प्रमुख विषय

  • ज्ञान की भूमिकाः अधिकांश एसएपीएस ज्ञान-गहन हैं और उन्हें सफलतापूर्वक अपनाने के लिए किसानों के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान और क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।
  • कृषि-श्रम पर निर्भरताः यह देखते हुए कि कृषि पद्धतियां बहुत विशिष्ट हैं, विभिन्न प्रकार के संसाधनों की तैयारियों, खरपतवार को हटाने या यहां तक कि मिश्रित फसल वाले खेत में कटाई जैसे कार्यों का मशीनीकरण अभी तक मुख्यधारा में नहीं आया है, जिससे खेत के स्तर पर विभिन्न गतिविधियों में श्रम पर निर्भरता बढ़ रही है। श्रम की गहनता या ज्यादा आवश्यकता कुछ एसएपीएस को मझौले से लेकर बड़े किसानों द्वारा अपनाने में बाधा पैदा कर सकती है।
  • एसएपीएस को अपनाने की प्रेरणाः पहला, पारंपरिक कृषि के दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव किसानों को विकल्प तलाशने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। दूसरा, जहां पर किसान के सामने संसाधनों की कमी होने की परिस्थितियां हैं, जैसे कि वर्षा आधारित क्षेत्र और जो बहुत ज्यादा बाहरी संसाधनों का उपयोग नहीं कर रहे हैं, वे क्रमिक रूप से एसएपीएस को अपनाने के लिए तैयार हैं।
  • खाद्य और पोषण सुरक्षा में एसएपीएस की भूमिकाः अधिकांश एसएपीएस अंतर-फसली, मिश्रित फसल, फसल चक्र, कृषि वानिकी या आईएफएस के माध्यम से फसल और खाद्य विविधता को बढ़ावा देते हैं। पहला, यह भोजन और आय स्रोतों में विविधता लाकर किसानों की खाद्य सुरक्षा को सुधारते हैं। दूसरा, उपलब्ध पोषण की विविधता में सुधार करके कृषक परिवारों के लिए पोषण सुरक्षा को बढ़ाते हैं, जो संभवतः देश की अंतर्निहित कुपोषण समस्याओं का समाधान कर सकता है। हालांकि, उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों में शायद ही इन दोनों पहलुओं का अध्ययन किया गया है, इसलिए भविष्य में इस पर अतिरिक्त शोध करने की आवश्यकता है।

प्रमुख सुझाव

  • वर्षा आधारित क्षेत्रों से इसे विस्तार देने की शुरुआत की जा सकती है, क्योंकि वे पहले से ही कम संसाधनों वाली कृषि कर रहे हैं, उनकी उत्पादकता भी कम है, और मुख्य रूप उन्हें इस बदलाव से लाभ मिलने की संभावना है।
  • प्रोत्साहनों को संसाधन संरक्षण के अनुरूप बनाते हुए और केवल उपज जैसे परिणाम की जगह पर कुल कृषि उत्पादकता या बढ़ी हुई पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं जैसे परिणामों को पुरस्कृत करते हुए किसानों के लिए सरकारी सहायता को पुनर्गठित करें।
  • पारंपरिक, संसाधन-गहन कृषि को एक तरफ और सतत कृषि को दूसरी तरफ रखकर दीर्घकालिक तुलनात्मक आकलन के माध्यम से सक्थ साक्ष्यों को जुटाने में सहायता करें।
  • कृषि पारिस्थितिकी तंत्र में हितधारकों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने और उन्हें वैकल्पिक दृष्टिकोणों को अपनाने के लिए उनमें अधिक स्वीकार्यता के लिए कदम उठाएं।
  • सतत कृषि की दिशा में व्यापक बदलावों से प्रतिकूल रूप से प्रभावित लोगों के लिए अल्पकालिक परिवर्तन सहायता (शार्ट-टर्म ट्रांजिशन सपोर्ट) देनी चाहिए।
  • राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर प्रभावी कृषि आंकड़ों की प्रणालियों में एसएपीए के आंकड़ों को जोड़ने के साथ सूचनाएं जुटाते हुए सतत कृषि को दृश्यमान बनाना चाहिए।

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Fellow & Director - Powering Livelihoods
जलवायु-संकट से घिरी दुनिया में भारत की पोषण सुरक्षा को पूरा करने के लिए सतत कृषि को बढ़ावा देना जरूरी है। यह रिपोर्ट निर्णयकर्ताओं को भारत में सतत कृषि को बढ़ावा देने के लिए सूचित निर्णय लेने के लिए संकेतों को छांटने में मदद करेगी।
कार्यकारी सारांश

जलवायु परिवर्तन का सामना करने वाले विश्व में हरित क्रांति आधारित कृषि

तार्किक रूप से, पिछली सदी में हुई हरित क्रांति अभी भी भारतीय कृषि का सबसे निर्णायक चरण है। संसाधन-गहन (input-intensive) और प्रौद्योगिकी केंद्रित दृष्टिकोण ने भारत को संभावित अकालों को रोकने और खाद्य आयात को घटाते हुए अपनी खाद्य सुरक्षा जरूरतों को पूरी करने में मदद की। जहां हरित क्रांति ने हमारी खाद्यान्न जरूरतों के लिए भारत को आत्मनिर्भर बनाया है और अधिकतर भारतीय किसानों को छुआ है, इसके दीर्घकालिक प्रभाव अब स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, चाहे मिट्टी की ऊपरी परत का क्षरण हो या भूजल स्तर में गिरावट या जल निकायों का प्रदूषण या फिर जैव विविधता में गिरावट हो। उर्वरकों का उपयोग बढ़ाए बगैर फसलों की पैदावार को आगे जारी रख पाना संभव नहीं है। छोटी जोत और संबंधित रूप से कम कृषि आय छोटे किसानों को गैर-कृषि आर्थिक गतिविधियों की तरफ धकेल रही है। परिपक्व हो रहा जलवायु परिवर्तन विज्ञान स्पष्ट कर रहा है कि संसाधन (इनपुट) की अधिकता वाली खेती जलवायु परिवर्तन की समस्या में योगदान करती है और उससे प्रभावित भी है।

सतत कृषिः एक आशाजनक समाधान?

जलवायु प्रेरित चरम घटनाओं - भीषण और निरंतर पड़ने वाला सूखा, बाढ़, रेगिस्तानी टिड्डियों के हमले- में बढ़ोतरी के दौर में इनका सामना करने के जमीन पर मौजूद उदाहरण सतत कृषि के लिए संभावना को रेखांकित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश में 2018 में आए पेथाई और तितली चक्रवातों के दौरान पारंपरिक तौर पर उगाई गई फसलों की तुलना में प्राकृतिक खेती आधारित फसलों ने तेज हवा का सामना करने में अधिक लचीलापन प्रदर्शित किया। भले ही ऐसे उदाहरण बढ़ रहे हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर सतत कृषि की स्थिति के बारे में एक समग्र समझ का अभाव दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, पूरे भारत में कौन सी सतत कृषि पद्धतियां प्रचलित हैं? कितने किसानों ने इन्हें अपनाया है? कौन से संगठन ऐसी पद्धतियों को प्रोत्साहन दे रहे हैं? ऐसी पद्धतियों का कृषि आय, पर्यावरण और सामाजिक परिणामों पर क्या-क्या प्रभाव पड़ा है? यदि प्रभाव से जुड़े साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, तो इसको लेकर हमारे मौजूदा ज्ञान में क्या अंतर मौजूद है?

इस अध्ययन ने ऐसे सवालों का जवाब देने का प्रयास किया है, जो भारत में सतत कृषि पद्धतियों को समग्रता से प्रोत्साहन देने के लिए नीति-निर्माताओं, प्रशासकों और परोपकारी संगठनों को साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने में सहायक हैं।

सतत कृषिः शब्दावली और कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण

खास सतत कृषि पद्धतियों को चिन्हित करने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि ‘सतत कृषि’ क्या है? एक अवधारणा के रूप में, सतत कृषि अपनी परिभाषा और प्रचलन/व्यवहार (practice) में व्यापक विविधताओं के साथ गतिशील है। इस अवधारणा को समझने के हमारे प्रयासों में इस शब्दावली की लगभग 70 परिभाषाओं से हमारा परिचय हुआ। सतत कृषि की अवधारणाओं को रेखांकित करने के लिए कई शब्दों का इस्तेमाल होता है। आइए पिछले 15 वर्षों के गूगल सर्च के रुझानों पर विचार करते हैं। जैविक खेती सबसे लोकप्रिय शब्द है, जिसके बाद सतत कृषि, कृषि-पारिस्थितिकी (agro-ecology), प्राकृतिक खेती और फिर पुनरुत्पादक खेती का स्थान आता है (चित्र ईएस 1)।

Figure ES1 Google trends show organic farming as the most popular term worldwide

Source: Authors’ adaption from (Google Trends)

विभिन्न परिभाषाओं में से, हमने अपने अध्ययन में कृषि-पारिस्थितिकी (agro-ecology) को शोध के दृष्टिकोण के रूप में चुना, क्योंकि इसमें सततशीलता के सभी तीन आयाम - आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक, शामिल हैं। व्यापक रूप से, यह कम संसाधन वाले कृषि समाधानों से जुड़ता है, फसलों एवं पशुधन में अत्यधिक विविधता उपलब्ध कराता है, और किसानों को स्थानीय परिस्थितियों से अनुकूलन स्थापित करने की छूट देता है।

भारत की सतत कृषि के प्रभावों से संबंधित उपलब्ध अध्ययन

उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों की व्यवस्थित समीक्षा से, हमने पाया कि विभिन्न परिणामों पर एसएपीएस के प्रभावों का आकलन करने वाले शोधकर्ताओं के बीच कृषि वानिकी, संरक्षित खेती और एसआरआई सर्वाधिक लोकप्रिय हैं (चित्र ईएस2)। इसके विपरीत, भारतीय संदर्भ में पर्माकल्चर (प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप खेती) और तैरती हुई (फ्लोटिंग) खेती के प्रभावों के बारे में साक्ष्य लगभग नहीं के बराबर हैं। अभी बॉयोडायनामिक कृषि के प्रभावों के बारे में भी साक्ष्य बहुत सीमित हैं। परिणामों के विभिन्न क्षेत्रों के संबंध में, अधिकांश एसएपीएस में आर्थिक और सामाजिक संकेतकों के साथ पर्यावरणीय संकेतकों पर केंद्रित कई प्रकाशन उपलब्ध हैं। इसके साथ, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और एकीकृत खेती प्रणालियों के आर्थिक परिणामों पर केंद्रित कई प्रकाशन उपलब्ध हैं।

उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों में सततशीलता के तीनों आयामों को लेकर सतत कृषि पद्धतियों एवं प्रणालियों (एसएपीएस) के दीर्घकालिक प्रभावों के आकलन की काफी कमी है। उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों में अल्पकालिक (0.5-3 वर्ष) आकलन की मात्रा मुख्य रूप से अधिक है। ये एसएपीएस में होने वाले परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभावों को समझने में सहायक नहीं हैं। संरक्षित खेती जैसी कुछ पद्धतियों में दीर्घकालिक प्रभावों से जुड़े अध्ययन उपलब्ध हैं, जो मुख्य रूप से सिंधु-गंगा के मैदानों में पर्यावरणीय परिणामों पर केंद्रित हैं।

  • अधिकतर प्रभाव संबंधी अध्ययन खेत के स्तर पर किए गए परीक्षणों (plot-level trials) तक सीमित हैं, जबकि कृषि वानिकी को छोड़कर, परिदृश्य/क्षेत्रीय/कृषि-पारिस्थितिकी के क्षेत्र स्तर (zone level) के आकलनों का मुख्य रूप से अभाव है। हमने पाया कि अध्ययनों में विद्यमान इन अंतरों के पीछे दीर्घकालिक और विस्तृत अध्ययनों की लागत एक प्रमुख कारण है।
  • अधिकतर उपलब्ध अध्ययन हित के सिर्फ एक पक्ष (जैसे पानी, मिट्टी, जेंडर, या उपज) पर ही किसी एक एसएपीएस के प्रभावों का आकलन करते हैं।
  • शोधकर्ताओं ने एक विषय के रूप में सततशीलता के सभी तीन आयामों में उपज, आय, मृदा स्वास्थ्य और जल में सर्वाधिक रुचि दिखाई है। जैव-विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं, स्वास्थ्य और जेंडर पर एसएपीएस के प्रभावों के बारे में सबसे कम शोध हुए हैं।
  • कृषि उत्पादकता को मापने के पारंपरिक दृष्टिकोण अक्सर एसएपीएस के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं। उपज के लिए, विभिन्न अध्ययन सतत व पारंपरिक पद्धतियों के बीच एकल फसल की पैदावार की तुलना की ओर झुके हैं। विभिन्न एसएपीएस के तहत अंतर-फसली या बहु-फसली खेती के माध्यम से फसलों का विविधीकरण आम है और उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों में उत्पादकता की चर्चा अक्सर अन्य फसलों की उपज को अनदेखा करती है। ऐसे ही, बहुत की एसएपीएस आमतौर पर पशुधन एकीकरण को बढ़ावा देती हैं, लेकिन पशुधन उत्पादन सहित संपूर्ण कृषि उत्पादकता को दर्ज करने वाले साक्ष्य सीमित हैं।
भारत में सतत कृषि के प्रभावों के साक्ष्य
  • आय: किसानों की आय पर एसएपीएस के प्रभावों के साक्ष्य भौगोलिक विस्तार और दीर्घकालिक आकलनों की संख्या दोनों ही मामलों में अपर्याप्त हैं। इस महत्वपूर्ण सीमा के बावजूद, उपलब्ध शोध व अन्य सामग्रियां उत्पादन लागत को घटाने (सीए, प्राकृतिक खेती), कृषि उपज के विविधीकरण (आईएफएस, अंतर-फसली) और विशेष मूल्य निर्धारण (जैविक उपजों के लिए) के माध्यम से आय को बढ़ाने वाली कुछ एसएपीएस की क्षमता को रेखांकित करती हैं।
  • उपज: कृषि उत्पादकता का पर्याप्त आकलन करने में संकल्पनात्मक सीमाओं के बावजूद, हमें कुछ एसएपीएस के तहत उपज के बारे में कुछ उभरते हुए रुझान मिले हैं। जैविक खेती के लिए, कम से कम अल्पावधि (2-3 वर्ष) में, उपज पारंपरिक खेती की तुलना में कम रहती है। कुछ अध्ययन कुछ फसलों के लिए इस अवधि के बाद एक समान और यहां तक कि अधिक उपज होने की बात करते हैं, खास तौर पर, कुछ वर्षों तक जैविक सामग्री के इस्तेमाल के बाद जब मिट्टी के स्वरूप और संरचना में सुधार हो जाता है। प्राकृतिक खेती के अल्पकालिक अध्ययन अधिकांश फसलों की पैदावार में आंकड़ों के लिहाज से महत्वपूर्ण बदलाव नहीं दर्शाते हैं। एसआरआई के लिए, पैदावार से जुड़े प्रभावों को अच्छी तरह से दर्ज किया गया है, जो धान की विभिन्न किस्मों में सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण वृद्धि दिखाते है। वर्मी-कम्पोस्टिंग, कृषि-वानिकी और फसल विविधीकरण जैसे संसाधनों का संरक्षण करने वाली पद्धतियों ने पैदावार पर सकारात्मक प्रभाव डाला है। हालांकि, फसल उत्पादन पर एसएपीएस के दीर्घकालिक प्रभावों को दर्ज करने वाले अध्ययनों की कमी परिणामों के सामान्यीकरण को मुश्किल बना देती है।
  • जल उपयोग: उपलब्ध शोधों व अन्य सामग्रियों में कई अध्ययन जल-उपयोग दक्षता पर विभिन्न एसएपीएस के प्रभावों को दिखाते हैं। विशेष रूप से, एसआरआई, सीए, विशिष्ट खेती, वर्षा जल संचयन, समोच्च खेती(contour farming), आवरण फसल, मल्चिंग, फसल चक्र और कृषि वानिकी ने जल संरक्षण पर सकारात्मक प्रभाव डाला है। वर्षा जल संचयन और एसआरआई लघु किसानों को आकर्षित करते हैं, क्योंकि उन्हें इनको अपनाने में सरलता होती है। प्राकृतिक खेती में मानसून-पूर्व शुष्क बुवाई को आंध्र प्रदेश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में एक उपलब्धि माना जाता है, जिसका और अधिक मूल्यांकन करने की जरूरत है।
  • ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन: विभिन्न एसएपीएस में कृषि वानिकी, एसआरआई और सीए से जलवायु शमन होने के सबसे ज्यादा साक्ष्य हैं। कृषि वानिकी की कार्बन-संग्रहण क्षमताओं (जमीन के ऊपर या नीचे) से संबंधित साक्ष्य अत्यधिक स्थापित हैं। साक्ष्यों के बढ़ते आकार से पता चलता है कि एसआरआई मीथेन उत्सर्जन को घटाने वाली एरोबिक मिट्टी स्थितियों को बढ़ावा देता है। हालांकि, अंतराल आधारित (इंटरमिटेंट) सिंचाई, जो कि एसआरआई का एक आंतरिक घटक है, नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन को बढ़ा सकता है। कुल मिलाकर, भारत में एसएपीएस के दीर्घकालिक कार्बन-संग्रहण प्रभावों का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
  • जैव विविधताः कृषि वानिकी, आईएफएस, पर्माकल्चर, प्राकृतिक खेती, जैविक खेती, संरक्षित खेती, और फसल विविधीकरण रणनीतियों (फसलों की अदला-बदली, अंतर-फसली, मिश्रित) जैसी कई एसएपीएस किसी एक खेत (और भू-आकृतियां) के स्तर पर प्रजातियों की स्थानिक, ऊर्ध्वगामी और अस्थायी विविधता बढ़ाने की तरफ झुकी हैं। भले ही शोधपरक लेखों में जैव विविधता संबंधी प्रभावों का उल्लेख है, लेकिन वास्तविक अनुभवजन्य साक्ष्य देने वाले अध्ययनों का अभाव है।
  • स्वास्थ्यः हमें विभिन्न एसएपीएस के सिर्फ सकारात्मक स्वास्थ्य प्रभावों, मुख्य रूप से आहार विविधता और कीटनाशक जैसे हानिकारक रसायनों के कम जोखिम के माध्यम से, का उल्लेख करने वाले आख्यान आधारित साक्ष्य (anecdotal evidence) मिले हैं। स्वास्थ्य परिणामों के लिए पारंपरिक कृषि के साथ एसएपीएस की तुलना करने वाले अनुभवजन्य अध्ययनों का अभाव है।
  • जेंडर (लैंगिक): भारतीय कृषि की श्रम शक्ति में महिलाओं का हिस्सा 70 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि, एसएपीएस के लिंग आधारित परिणामों पर केंद्रित शोध अध्ययनों की कमी है। वर्मीकम्पोस्टिंग, जैविक खेती, आईएफएस और वर्षा जल संचयन जैसी कुछ पद्धतियां महिलाओं की भूमिकाओं को परिभाषित करती हैं, लेकिन महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े साक्ष्यों का अभाव है। हमें महिलाओं पर काम के बोझ, आय, सशक्तिकरण और रोजगार पर विभिन्न एसएपीएस के प्रभावों को समझने के लिए और अधिक शोध करने की आवश्यकता है।

डिस्क्लेमर : यह मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद है। हमने इसके अनुवाद में पूरी सतर्कता बरती है। यदि इसमें कोई भ्रम होता है या भूलवश कोई त्रुटि सामने आती है तो इसका अंग्रेजी संस्करण ही मान्य होगा।

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